12 जून 2012

प्रेम सेवा वाले प्रगट कीधी


राग धन्यासरी  
प्रेम    सेवा    वाले    प्रगट   कीधी,   व्रज    तणी       वार  
वचन  विचारीने  जो  जोइए,  कांई नरसैयां तणा निरधार  ।।। १ ।।
श्री धामतणां साथ सांभलो, हुं तो कहुं छुं लागीने पाय ।
जे रे मनोरथ कीधां आपणे, ते  पूरण  एणी पेरे थाय ।। २ ।।
व्रजमां  कीधी  आपण  वातडी,  ते   तां सघली मांहें  सनेह 
काम करतां अति घणां, पण  खिण  नव छाडयो नेह ।। ३ ।।
विविध  पेरे  सिणगार  जो करतां, मन  उलास     थाय ।
मननां  मनोरथ  पूरण  करतां,  रंग  भर  रैणी विहाय ।। ४ ।।
उठतां बेसतां रमतां, वालो चितथी ते  अलगो  न थाय ।
ज्यारे  वन  पधारतां,  त्यारे  खिण  वरसा  सो  थाय ।। ५ ।।
मांहों मांहें विचार    करतां, वात    करतां  एह ।
आतम  सहुनी  एकज  दीसे,  जुजवी  ते दीसे   देह ।। ६ ।।
निस  दिवस  वालाजीसुं  वातो,   रामत  करतां  जाय ।
खिणमात्र जो अलगां थैए, तो विछोडो खिण न खमाय ।। ।।
विविध विलास वालाजीसुं  करतां, पूरण मनोरथ थाय ।
ज्यारे वाछरडां लई वन पधारे, त्यारे रोवंतां दिन जाय ।। ८ ।।
दाण  लीलानी  रामत  करतां, माथे  मही   माखणनो     भार  
वचन    रंगनां  उथलां   वालतां,   रमतां   वन    मंझार  ।। ९। ।।
व्रज  नरसैए  प्रगट  कीधुं,  अति  घणां  वचन  विवेक ।
  वचन  जोइने  चालिए,  तो  आपण  थैए    विसेक ।। १० ।।
व्रजलीला अति मोटी छे, जो जो नरसैयां वचन प्रमाण ।
ए पगलां सरवे आपणां, तमे जाणी सको  ते जाण ।। ११ ।।
कहे इन्द्रावती सुणो रे साथजी, इहां विलम्ब कीधांनी नहीं वार  
  अजवालुं  कीधुं   मारे   वाले,   आपणने      वार  ।। १२ ।।
प्रणाम जी................
योगी अर्जुन राज पुरी  











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