12 जून 2012

श्री रास ग्रन्थ मोहजलनु प्रकरण

हवे  पहेलां  मोहजलनी  कहुं  वात,  ते  तां   दुखरूपी  दिन   रात ।
दावानल    बले   कै    भांत,    तेनी   केटली   कहुं  विख्यात ।। १ ।।
विस्वने   लागी   जाणे     ब्राध,   मांहें   अगिन   बले   अगाध ।
ते  तां  पीडे  दुस्ट   ने   साध,    नहीं    अधखिणनी    समाध ।। २ ।।
क्रपा करोछो  अमज  तणी,   सिखामण  देओ  छो  अति  घणी ।
अहिनिस  लेओछो  अमारी  सार,  तो  मोहजल  उतरसुं   पार ।। ३ ।।
  माया  छे  अति   बलवंती,  उपनी  छे  मूल  धणी   थकी ।
मुनिजनने   मनाव्या   हार,   सिव   ब्रह्मादिक   नव  लहे   पार ।। ४ ।।
सुक सनकादिने नव टली,  लखमी नारायणने फरी  वली 
विस्नु  वैकुंठ  लीधां  मांहें,  सागर  सिखर    मूक्यां  क्यांहें  ।।    ।।
   उपर   हवे   सुं  कहुं,   बीजा  नाम   ते  केहना  लऊं ।
एणे  वचने  सरवालो  थयो,  ब्रह्मांडनो  धन सरवे  आवयो  ।।    ।।
तत्व सहु  एणीए जीती  लीधां,  चौदे  लोक  पोतानां  कीधां 
वली  लीधो  तत्व  मोह,  जे  थकी  उपन्या  सहु  कोए  ।।    ।।
कहे   इन्द्रावती   वल्लभा,      माया    छे   अति   छल 
हवे  जुध   मांडयुं   छे  अमसूं,   एहनुं  कह्युं न जाय बल ।।    ।।
एहना   आउध   अम्रत   रूप   रस,   छल   बल   वल   अकल 
अगिन   कुटिल   ने    कोमल,    चंचल    चतुर   चपल ।।    ।।
हवे   एहनो  केटलो  कहुं  विस्तार,  जोरावर  अति  अपार 
मोसूं    जुध   मांडयुं  आसाधार,  जुध  करे   छे   वारंवार  ।। १० ।।
एहने  लाग्यो  कोई  एवो  खार,  मारो   केड      मूके   नार 
में  बांध्यां  सामा  हथियार,  तो  जाण्यो जोपे एहनो  मार  ।। ११ ।।
एणे  समे  जे  अममां  वीती,  केटली  कहुं  तेह   फजीती 
में  तो  रूडी  रीते   ग्रहीती,    पण    मुने    लीधी  जीती  ।। १२ ।।
बांहे  ग्रही  लई  निसरी,  में  त्रण  जुध   कीधां    फरी   फरी 
पछे    गत   मत   मारी    हरी,  लई   वस  पोताने  करी  ।। १३ ।।
तमे अनेक सिखामण कही, पण भरम आडे  में  कांई नव ग्रही 
मोसूं  एवी  तोहज  थई,  जो   वाणी  तमारी में  नव  लही  ।। १४ ।।
तमे   पेरे   पेरे   समझावी,   मुने   तोहे    बुध        आवी 
जुगतें    करीने    जगावी,    लई      तारतमे     लगावी  ।। १५ ।।
तमे  अंतरगतें  दीधां  द्रस्टांत,  त्यारे  भागी मारा मननी  भ्रांत 
हवे  तमे  आव्या  एकान्त,   संसार    दसा   थई   स्वांत ।। १६ ।।
ज्यारे  धणी  धणवट  करे,  त्यारे  बल  वेरीनां   हरे 
वली गयां काम सराडे  चढे,  मन   चितव्यां   कारज   सरे  ।। १૭ ।।

मायाना     मुख      मांहेंथी,  जुगतें    काढी    जोर ।
दई  तजारक  अति  घणी,   माया    कीधी   पाधरी   दोर  ।। १८ ।।
धणीनी     जेम    धणवट,   लीधी    भली    पेरे     सार  ।।
आ दुख रूपणीना मुख मांहेंथी, बीजो कोण काढे विना आधार  ।। १९ ।।
तमे क्रपा कीधी अति घणी,  जाणी  मूल  सगाई  घरतणी  ।।
माया  पाडी  पडताले  हणी,  बल  दीधुं  मुने  मारे  धणी  ।। २० ।।
वली  गत  मत  आवी  सुध   सार,  छल  छूटयो  ने थयो  करार 
दयानो  नव  लाधे  पार,    त्यारे    अलगो  थयो    संसार  ।। २१ ।।
हवे   आव्युं  धन   अविनासी,   दुख    दावानल   गयुं   नासी 
रुदे  ग्रहुं   लीला   विलासी,   हवे   ते   हुं  करुं  प्रकासी ।। २२ ।।
हवे     धन  में  जोपे   जाण्युं,    जिभ्याए    जाय वखाण्युं 
मारा   हैडामां   आण्युं,   अम    विना   कोणे      माण्युं  ।। २३ ।।
बल     नथी    आंहीं    अमतणुं,    नहीं    अमारे     वस ।
  निध  आवी  तम  थकी,   ते   में चित  कीधुं  चोकस ।। २४ ।।
में  चित    मांहें    चितव्युं,    जाण्युं    करसुं      सेवा   सार 
मल्यो   धणी   मुने    धामनो,   सुफल    करुं   अवतार  ।। २५ ।।
जे   मनोरथ   मनमां    रह्यो,  मारा   धणी   श्री   राज ।
खरुं   करतां   खोटा  मांहेंथी,  पण  नव  सिध्युं  एके  काज ।। २६ ।।  
में  मारुं  बल  जाण्युं,   हुं  तो   छुं  अति   मूढ ।
    थाय      सरवे   धणी   थकी,   ते    में    कीधुं    द्रढ  ।। २૭ ।।
मुने दुख साले ए  मन  मांहें,  नव जाए कह्युं ते क्यांहें ।
गमे तमने तेहज थाय,   बीजे सामुं कोणे न जोवाय ।। २८ ।।
ए दुख लाग्युं मुने सही, ए उत्कंठा   मारा    मनमां रही ।
एणी दाझे ते मुने दही,  निध   हाथथी   निसरी   गई ।। २९ ।।
जाण्युं   लाभ   मायानो    लेसुं,   निद्राने  वासो देसुं ।
धणीने चरणे   रहेसुं, माया   कहेसे  ते  सरवे सहेसुं ।। ३० ।।
एणे समे वली फेरवी  लीधी,   मायाए सिखामण दीधी ।
धणी थकी   वेमुख कीधी,   पाणीनी    जेम  पीधी ।। ३१ ।।
एहवो   छल   करी   छेतरी,   मन   मूल   मांहेंथी   फेरी ।
एणे आप सरीखी करी,  चित   चितवणी  बहुविध धरी ।। ३२ ।।
मन मांहें सवलुं   देखे, जाणे   माया   सुख    अलेखे 
धणीनां  सुख ना  पेखे,    विष   अम्रत  लागे विसेखे ।। ३३ ।।
जुओ  भूलवी  छेतरे   केम,   आगे    छेतरी  मुने जेम ।
सुकजी तो पुकारे   एम,   जे   छलपुरी     भरम ।। ३४ ।।
आहीं सोहेली थई तम थकी, एहने  ओलखतुं कोय नथी ।
सुकदेवे  तो  कांईक  कथी,  बीजा   रह्यां  मथी मथी ।। ३५ ।।
एहने निरमूल करी नाखी तमे, हजी   जोपे जाणी नथी अमे 
एहना रमाडयां सहु रमे, मांहें  बंधाणां   सहु को भमे ।। ३६ ।।
ए वचन तो आंहीं  केहेवाय, जो  अमे  नव बंधावुं मायाए 
एहना बंध पडयां सहु कायाए, अमे छुटया  धणीनी   दयाए  ।। ३૭ ।।
एम  चौद  लोकमां कोई नव कहे, जे पार मायानो आ लहे 
मोटी  मत  धणीमां  रहे,  बीजा  भार  पुस्तक   केरा   वहे  ।। ३८ ।।
सास्त्र  पुराण  वेदान्त  जो,  भागवत  पूरे साख ।
नहीं   कथा       दन्तनी,    सत  वाणी   ए वाक ।। ३९ ।।
  वैराट  मांहें  दीसे  नहीं,  पार  वचन  सुध  जेह ।
लवो   मुख  बोलाए   नहीं,  तो   केम   पार   पामे   तेह  ।। ४० ।।
हवे मायानो जे पामसे पार, तारतम करसे तेह विचार ।
ब्रह्मांड मांहें तारतम  सार, एणे   टाल्यो  सहुनो  अंधकार  ।। ४१ ।।
लोक  चौदे  मायानो  फंद,  सहु   छलतणां     बंध ।
समझ्यां   विना   सहुए   अंध,   तारतम   कहेसे  सहु   सनंध ।। ४२ ।।
नहीं राखुं  संदेह   एक, पैया   काढुं  सहुनां  छेक ।
आ वाणी थासे अति विसेक, कहुं पारना  पार  विवेक ।। ४३ ।।
न कहेवाय माया मांहें आ वाणी, पण  साथ माटे कहेवाणी 
साथ आवसे  रुदे  आंणी,  ते   में  नेहेचे  कह्युं  जाणी ।। ४४ ।।
भारे  वचन  छे  निरधार,  साथ  करसे  एह   विचार ।
जो    कहुं  सतनो  सार, तो  केम  साथ   पहोंचसे  पार  ।। ४५ ।।
साथ  मलीने   सांभलो,  जागी   करो   विचार ।
जेणे   अजवालुं      कर्युं,   परखो   पुरुष     पार  ।। ४६ ।।
आपण  हजी  नथी  ओलख्या,  जुओ  विचारी  मन ।
विविध   पेरे   समजावियां,  अने   कही  निध    तारतम  ।। ४૭ ।।
नित  प्रते  सहु  साथने,  वालोजी  दिए छे ए सार ।
दया    करीने     वरणवे,   आपण   आगल      आधार  ।। ४८ ।।
व्रजतणी   लीला    कही,    वली    विसेखे    रास ।
श्री   धामतणां   सुख  वरणवे,    दिए  निध   प्राणनाथ  ।। ४९ ।।
हवे  एह  धणी  केम  मूकिए, वली वली  करो विचार ।
मूल बुध चेतन   करी,  धणी   ओलखो     वार ।। ५० ।।
आ जोगवाई छे जाग्या तणी, अने विचार मांहें समजण ।।
जे समझो ते जागजो,  पण आ  अवसर  अरधो खिण ।। ५१ ।।
आगे  धणी पधार्या अममां, अमे करी न सक्या  ओलखाण 
ए निखरपणे   निध   निगमी,   थई  अति घणी  हाण ।। ५२ ।।
आव्या धणी ना ओलख्या,  अमे भूल्यां एणी भांत ।
विना विचारे  ना  समज्यां,  निगमी   निध  साख्यात ।। ५३ ।।
जोई विचारिए एक वचन, तो अलगां  थइए पासेथी केम ।
दीजे प्रदखिणा रात ने दिन, कीजे फेरो  सुफल धन  धन ।। ५४ ।।
दीवे टाल्यो ज्यारे सुन सोहाग, त्यारे पतंग पाम्यो वेराग ।
कां  झंपावी  ओलवे  आग, कां  कायानो  करे त्याग ।। ५५ ।।
जुओ  जीवतणी    रीत,  नव   मूके  अंधेरनी  प्रीत ।
धणी अमारो अक्षरातीत, अमे तोहे    समझ्या पतीत ।। ५६ ।।
हवे घर मांहें उंचुं केम जोसुं, हंसी कही वात ना करी वरसुं 
ए धणी  विना  केने अनुसरसुं,  हवे अमे   रोई  रोईने मरसुं  ।। ५૭ ।।
  अमारी  वीतकनी  विध,  मुने  मरडी कीधी बेसुध ।।
अमने  छेतर्यां  एणी बुध,  तो गई अखंड अमारी निध ।। ५८ ।।
जो  पाणीवल  अलगां   जाय,  तो खिणमात्र वरसा सो थाय 
धणी विना केम रहेवाय, जो  कांईक  निध ओलखाय ।। ५९ ।।
मीन जल  विना  जेणी  अदाय,  अंतर व्रह न खमाय ।
तो व्रह आपण  केम सहेवाय, जो एक लवो समजाय ।। ६० ।।
अमे   व्रह   धणीनो    खम्यां,   जे    दिन    व्रथा   निगम्यां 
अमे   भरम   मांहें   भम्यां,  जो   अगनी   व्रह   ना   दम्यां  ।। ६१ ।।
एणे   मोहे  माहुं   कर्यां,  करी      सक्यां  विचार ।।
सुनाई    आवी    सहुने,    तो    आडो     आव्यो     संसार  ।। ६२ ।।
जो विध    लहुं   वचननी, तो  संसार   अमने सुं ।
एनुं   कांई   चाले   नहीं,   जो   ओलखुं   आपोपुं ।। ६३ ।।
आगल    एम    कह्युं    छे,   जे   आंधलो   चाले   सही 
ज्यारे   भटके   भीत   निलाटमां,   तिहां    लगे   देखे  नहीं ।। ६४ ।।
ते तां अमने  अनुभव्युं,  अमे तोहे न   जाणी सनंध ।
घण लाग्यो  कपालमां,   अमे   तोहे   अंधना    अंध ।। ६५ ।।
आंख तोहे न उघडी,   वाले  कही   अनेक   विध ।।
अंध   अमे   एवां   थयां,    निगमी    बेठां  निध ।। ६६ ।।
अंधने आंख रुदे तणी,  पण अमने  मांहें  न बहार ।।
तो निध खोई   हाथथी,   जो   कीधो    नहीं विचार ।। ६૭ ।।
अंधने आंख रुदे तणी होय, पण  अमने नव दीसे कोय ।
अमे तो रह्यां  निध  खोय,  टाणे भूल्यां  सुं थाय रोय ।। ६८ ।।
गए अवसर सुं थाय पछे, धन गये  हाथ सहु घसे ।।
मांहें हाण बहार सहु हंसे, ते तो  मांहेंनी   मांहें रडसे ।। ६९ ।।
साथ ए पेर अमसूं थई, निध  हाथ आवी करी गई ।
दिन घणां अम मांहें रही,  पण  अमे दुस्टें जाणी नहीं ।। ૭० ।।
दुरमती करे तेम कीधुं, अमृत  ढोलीने   विष   पीधुं ।
धणी सहेजे आव्यां सुख न लीधुं, कारज कोई नव सिध्युं ।। ૭१ ।।
हवे      दुख   कोने   कहिए,   अंग   मांहे   आतम   सहिए  
कीधुं  पोतानुं   लईए,    हवे   दोष   कोने   दइए ।। ૭२ ।।
तोहे धणीए हाथथी मूक्यां नहीं, तो वली आपणमां आव्यां सही 
ए निध मुखथी न जाय कही, जे आंहीं अम उपर दया थई ।। ૭३ ।।
धन गयुं ते आव्युं वली, गयो  अंधकार   सहु   टली ।
सुखना सागर मांहें गली, एने बीजो ना सके  कोय कली ।। ૭४ ।।
हवे  में   सुख   अखंड   लीधां,  मननां  मनोरथ  सीधां ।
वाले आप सरीखडां कीधां, फल वांछाथी अधिक दीधां ।।  ૭५।।
क्रपा  कीधी  अति  घणी,  वली   आव्या  ततकाल ।
तेहज  वाणी  ने   तेहज    चरचा,  प्रेम  तणी    रसाल ।। ૭६ ।।
वली वचन सोहामणां, वली वरणवनी  विध विध ।
आव्या ते आनंद अति  घणे,  लाव्या  ते नेहेचल निध ।। ૭૭ ।।
ए निध निरमल अति  घणी,  दिए  साथने सार ।
कोमल  चित  करी   लीजिए,   जेम   रुदे  रहे निरधार ।। ૭८ ।।
पचवीस पख छे आपणां, तेमां कीजे   रंग  विलास ।
प्रगट कह्यां   छे   पाधरा,   तमे   ग्रहजो   सहु साथ ।। ૭९।।
आपणुं धन तां   एह   छे,   जे   दिए  छे   आधार ।
रखे अधखिण   तमे   मूकतां,  वालो कहे छे वारंवार ।। ८०।।
पख पचवीस छे अति भलां, पण ए छे आपणो धरम ।
साख्यात तणी सेवा कीजिए,      रुदे  राखजो मरम ।। ८१ ।।
चित उपर  वली   चालिए,   धणी    तणे    वचन ।
ए वाणी  तमे  चित  धरो,  हुं  कहुं  छुं  द्रढ  करी मन  ।। ८२।।
दई प्रदखिणा अति   घणी,   करुं   दंडवत परणाम ।
सहु साथना  मनोरथ   पूरजो,  मारा   धणी  श्रीधाम ।। ८३ ।।
मनना  मनोरथ   पूरण   कीधां,   मारा    अनेक    वार 
वारणे   जाय    इन्द्रावती,   मारा  आतमना  आधार  ।। ८४ ।।
प्रणाम जी ......
योगी अर्जुन राज पुरी 




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