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!! उथला प्रकरण !!
वालैयो वाणी एम ओचरेजी, कहे सांभलजो सहु साथ ।
पतिव्रता अस्त्री जे होय, ते तो नव मूके घर रात । रे सखियो सांभलो (टेक) ।। १ ।। |
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तमे साथ सकल मली सांभलो, हुं वचन कहुं निरधारजी ।
तमे वेण मारो श्रवणे सुण्यो, घर मूक्यां ऊभा वारजी ।। २ ।। |
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कुसल छे कांई व्रजमांजी, केम आवियों आणी वेरजी ।
उतावलियों उजाणियोंजी, कांई मूक्यां कारज घेरजी ।। ३ ।। |
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किहे रे परियाणे तमे निसरयांजी, कांई जोवा वृन्दावन ।
जोयुं वन रलियामणुं, कांई तमे थया प्रसन्न ।। ४ ।। |
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हवे पुरे रे पधारो आपणेजी, कांई रजनी ते रूप अंधार ।
निसाचारी जीव बोलसेजी, त्यारे थासे भयंकार ।। ५ ।। |
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निसाए नारी जे निसरेजी, काई कुलवंती ते न कहेवाय ।
नात परनात जे सांभलेजी, कांई चेहरो तेमां थाय ।। ६ ।। |
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सखियो तमे तो कांई न विमासियुंजी, एवडी करे कोई वात ।
अणजाणे उठी आवियुंजी, कांई सकल मलीने साथ ।। ૭ ।। |
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ससरो सासु मात तातनीजी, कांई तमे लोपी छे लाज ।
तमे सरम न आणी केहनी, तमे ए सुं कीधुं आज ।। ८ ।। |
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तमे पत तो तमारा ऊभा मूकियाजी, कांई रोतां मूक्यां बाल ।
ए वचन सुणीने विनता टलवली, कांई भोम पडियों ततकाल ।। ९ ।। |
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तेमां केटलीक सखियो ऊभी रहियो, कांई द्रढ करीने मन ।
बाई वांक हसे जो आपणोजी, तो वालोजी कहे छे वचन ।। १० ।। |
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वचन वाले सामा तामसियो, राजसियो फडकला खाय ।
स्वांतसिए बोलाय नहीं, ते तां पडियो भोम मुरछाय ।। ११ ।। |
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एणे समे मही सखी ऊभी रही, कहे सांभलो धणीनां वचन ।
सखियो कुलाहल तमे कां करोजी, कांई ऊभा रहो द्रढ करी मन ।। १२ ।। |
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सखियो भूलां छुं घणवें आपणजी, अने वली कीजे सामा रुदन ।
कलहो करो भोमे पडोजी, कां विलखाओ वदन ।। १३ ।। |
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पिउजी पधार्या प्रभातमां, आपण आव्यां छुं अत्यारे ।
ते पण तेडीने वाले काढियां, नहीं तो निसरतां नहीं क्यारे ।। १४ ।। |
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पाछल आपण केम रहुं, जो होय कांई वालपण ।
केम न खीजे वालैयो, ज्यारे सेवा भूल्यां आपण ।। १५ ।। |
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वालाजी कहेवुं होय ते कहेजो, कांई अमने निसंक ।
अमे तम आगल ऊभा छुं, कांई रखे आणो ओसंक ।। १६ ।। |
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सखियो तम माटे हुं एम कहुं, कांई तमारा जतन ।
रखे कोय तमने वांकुं कहे, त्यारे दुख धरसो तमे मन ।। १૭ ।। |
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सखियो तमे जेम घर ऊभां मूकियां, तेम माणस न मूके कोय ।
एम व्याकुल थई कोई न निसरे, जो ग्यान रुदेमां होय ।। १८ ।। |
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सखियो तमे पाछा वलो, अधखिण म लावो वार ।
मनडे तमारे दया नहीं, घेर टलवले छे बाल ।। १९ ।। |
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ए धरम नहीं नारी तणोजी, हुं कहुं छुं वारंवार ।
हवे घरडे तमारे सिधाविएजी, घेर वाटडी जुए भरतार ।। २० ।। |
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वालैया हजी तमारे कहेवुं छे, के तमे कहीने रह्या एह ।
ते सरवे अमे सांभल्युंजी, तमे कह्युं जुगते जेह ।। २१ ।। |
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सखियो हजी मारे कहेवुं छे, तमे श्रवणा देजो चित ।
मरजादा केम मूकिए, आपण चालिए केम अनीत ।। २२ ।। |
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हवे वली कहुं ते सांभलो, कांई मोटुं एक द्रष्टांत ।
वेद पुराणे जे कह्युं, कांई तेहनुं ते कहुं व्रतांत ।। २३ ।। |
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भवरोगी होय जनमनो, जो एहवो होय भरतार ।
तोहे तेने नव मूकवो, जो होय कुलवंती नार ।। २४ ।। |
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जो पत होय आंधलो, अने वली जड होय अपार ।
तोहे तेने नव मूकवो, जो होय कुलवंती नार ।। २५ ।। |
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जो पत होय कोढियो, अने कलहो करे अपार ।
तोहे तेने नव मूकवो, जो होय कुलवंती नार ।। २६ ।। |
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जो पत होय अभागियो, अने जनम दलिद्री अपार ।
तोहे तेने नव मूकवो, जो होय कुलवंती नार ।। २૭ ।। |
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जो पत होय पांगलो, बीजा अवगुण होय अपार ।
तोहे तेने नव मूकवो, जो होय कुलवंती नार ।। २८ ।। |
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खोड होय भरतारमां, अने मूरख होय अजाण ।
तोहे तेने नव मूकवो, एम कहे छे वेद पुराण ।। २९ ।। |
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ते माटे हुं एम कहुं, जे नव मूकवो पत ।
ततखिण तमे पाछां वलो, जो रुदे होय कांई मत ।। ३० ।। |
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हवे साथ कहे अमे सांभल्यां, कांई तमारा वचन ।
हवे अमे कहुं ते सांभलो, कांई द्रढ करीने मन ।। ३१ ।। |
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पत तो वालैयो अमतणो, अमे ओलखियो निरधार ।
वेण सांभलतां तमतणी, अमने खिण नव लागी वार ।। ३२ ।। |
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अमे पीहर पख नव ओलख्युं, नव जाण्युं सासर वेड ।
एक जाणुं मारो वालैयो, नव मूकुं तेहनी केड ।। ३३ ।। |
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पत तो केमे नव मूकवो, तमे अति घणुं कह्युं रे अपार ।
तमे साख पुरावी वेदनी, त्यारे केम मूकुं आधार ।। ३४ ।। |
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तमे कह्युं पत नव मूकवो, जो अवगुण होय रे अपार ।
तमे रे तमारे मोंहे कह्युं, तमे न्यारे कीधो निरधार ।। ३५ ।। |
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अवगुण पत नव मूकवो, तो गुण धणी मूकिए केमजी ।
तममां अवगुण किहां छे, तमे कां कहो अमने एमजी ।। ३६ ।। |
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एवा हलवा बोल न बोलिए, हुं वारुं छुं तमने ।
ए वचन कहेवा नव घटे, कांई एम कहेवुं अमने ।। ३૭ ।। |
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अमे तो आव्या आनंद भरे, कांई तमसुं रमवा रातजी ।
एवा बोल न बोलिए, अमने दुख लागे निघातजी ।। ३८ ।। |
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अमे किहां रे पाछां वली जाइए, अमने नथी बीजो कोई ठाम जी ।
कहोजी अवगुण अमतणां, तमें कां कहो अमने एमजी ।। ३९ ।। |
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अमे तम विना नव ओलख्युं, बीजा संसार केरा सूलजी ।
चरणे तमारे वालैया, कांई अमारा छे मूलजी ।। ४० ।। |
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फल रोप्यो आंबो तमतणो, वाड कांटा कुटंम पाखल ।
बीजो झांपो रखोपुं करे, कांई स्यो रे सनमंध तेसुं फल ।। ४१ ।। |
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फूल फूल्यां जेम वेलडी, ते तां विकसे सदा रे सनेह ।
वछूटे ज्यारे वेलथी, त्यारे ततखिण सूके तेह ।। ४२ ।। |
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जीव अमारा तम कने, कांई चरणे वलगां एम ।
फूल तणी गत जाणजो, ते अलगां थाय केम ।। ४३ ।। |
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तेम जीव अमारा बांधिया, जेम पडिया मांहें जाल ।
खिण एक सामुं नव जोउं, तो पिंडडा पडे ततकाल ।। ४४ ।। |
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जीव अमारा चरणे तमतणे, ते अलगां थाय केम ।
जल मांहें जीव जे रहे, कांई मीन केरा वली जेम ।। ४५ ।। |
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वाला तमे अमसुं एम कां करो, अमे वचन सह्यां नव जाय ।
खिण एक सामुं नव जोउं, तो तरत अद्रष्ट देह थाय ।। ४६ ।। |
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निखर अमारी आतमा, अने निठुर अमारां मन ।
कठण एवां तमतणां, अमे तो रे सह्यां वचन ।। ४૭ ।। |
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अम मांहें कांई अमपणुं, जो हसे आ वार ।
तो वचन एवां तमतणां, अमे नहीं सांभलुं निरधार ।। ४८ ।। |
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सखिए मनमां वचन विचारियां, कांई प्रेम वाध्यो अपार ।
जोगमाया अति जोर थई, कांई पाछी पडियो ततकाल ।। ४९ ।। |
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ततखिण वाले उठाडियुं, कांई आवीने लीधी अंग ।
आनंद अति वधारियो, कांई सोकनो कीधो भंग ।। ५० ।। |
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वालोजी कहे छे वातडी, तमे सांभलजो सहु कोय ।
में जोयुं तमारुं पारखुं, रखे लेस मायानो होय ।। ५१ ।। |
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ओसीकल वचन वाले कह्यां, कांई ते में न कहेवाय ।
सुकजीए निरधारियुं छे, पण ते में लख्युं न जाय ।। ५२ ।। |
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ए वचन श्रवणे सुणी, कांई मनडां थयां अति भंग ।
वाला एम तमे अमने कां कहो, अमे नहीं रे खमाय अंग ।। ५३ ।। |
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कलकलती कंपमान थैयो, कांई ततखिण पडियो तेह ।
आवीने उछरंगे लीधियो, कांई तरत वाध्यो सनेह ।। ५४ ।। |
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आंखडिए आंसु ढालियां, तमे कां करो चितनो भंग ।
आंसुडां लोउं तमतणां, आपण करसुं अति घणो रंग ।। ५५ ।। |
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सखी पूरुं मनोरथ तमतणां, कांई करसुं ते रंग विलास ।
करवा रामत अति घणी, में जोयुं मायानो पास ।। ५६ ।। |
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सखीओ वृन्दावन देखाडुं तमने, चालो रंग भर रमिए रास ।
विविध पेरेनी रामतो, आपण करसुं मांहों मांहें हांस ।। ५૭ ।। |
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तमे प्राणपें मुने वालियो, जेम कहो करुं हुं तेम ।
रखे कोय मनमां दुख करो, कांई तमे मारा जीवन ।। ५८ ।।
प्रणाम जी..........
योगी अर्जुन राज पुरी
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12 जून 2012
वालैयो वाणी एम ओचरेजी
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